शनिवार, 20 अगस्त 2011

अन्ना का आंदोलन और मीडिया की दुकान


अन्ना का आंदोलन अपनी गति को प्राप्त कर रहा है या
मीडिया इसे तेजी से दौड़ा रहा है, इसे समझना आसान है। रामलीला मैदान में शुक्रवार यानी 19 अगस्त की रात को करीब 11 बजे अन्ना के समर्थकों की संख्या करीब 50 थी।
लेकिन जिस किसी ने उस रात खबरिया चैनलों पर अन्ना के आंदोलन की खबर देखी होगी, उसे यही लगा होगा कि अन्ना के समर्थकों की आपार भीड़ रामलीला मैदान पर उमड़ी पड़ी है। इसका फायदा  दोनों को यानी मीडिया और अन्ना के आंदोलन को हुआ। पहला फायदा तो चैनल वालों को हुआ कि उसकी टीआरपी बढ़ी। दूसरा, अन्ना के आंदोलन को छोटे फ्रेम में दिखाने के अलावा खबरिया चैनलों के पास कुछ नहीं था। भारतीय क्रिकेट टीम भी लगातार चौथे मैच में भी अपनी किरकिरी करा रही है। ऐसे में अन्ना के आंदोलन को चाट-मसाला लगा कर लोगों को उनके ड्राइंग रूम में पेश करना खबरिया चैनलों के लिए फायदेमंद रहा। चैनलों की दुकान भी खूब चली। लोग दौड़-दौड़ कर उनकी दूकान की तरफ भाग कर आ रहे थे कि कुछ ताजा न्यूज नास्ते में मिले।

 दूसरी तरफ अन्ना के आंदोलन को इसका फायदा दूसरे दिन हुआ यानी शनिवार, 20 अगस्त को । शनिवार को जितने भी लोगों ने टीवी या अखबारों में अन्ना के आंदोलन को बड़े चाव से नास्ते में लिया था, वे सीधे खाना खाने के लिए रामलीला मैदान की तरफ दौड़ पड़े। इससे  टीम अन्ना को भी लगा कि मामला आगे बढ़ रहा है, लोग अब जुड़ रहे हैं। शनिवार को दोपहर 2 बजे तक करीब 2 हजार लोग रामलीला मैदान में मौजूद होकर सरकार को कोसते हुए अन्ना को अपना समर्थन दे रहे थे। शाम होते-होते ये संख्या करीब 5 हजार तक आ पहुंची। फिर भी रामलीला मैदान का एक-चौथाई हिस्सा ही आंदोलनकारियों से भरा हुआ था बाकि का हिस्सा खाली पड़ा था। ज्यादातर युवा इस आंदोलन में शरीक होते दिख रहे थे। चारों तरफ एक ही शोर गुंज रहा था। 'अन्ना नहीं,ये आंधी है, देश का गांधी है'। नारों का दौर चलता रहा, जो थक गए वो साइड लग गए और जो खुद को टीवी में दिखने के लिए वहां गए थे वो खबरिया चैनलों के कैमरों के आगे-पीछे मंडराने लगे जैसे अकेली लड़की को देखकर लड़के मंडराते हैं।

खबरिया चैनल भी अपनी दुकान लगा कर तैयार बैठे हैं। 'सबसे तेज' तो 'आजतक' की खबर दिखाने में इतना मशगूल है कि वो रामलीला मैदान पर ही 'अन्ना की अगस्त क्रांति' शुरू कर दिया है। अन्य चैनल भी 'सबसे तेज' से खुद को कमतर नहीं देखना चाहते है इसलिए उन्होंने तो बकायदा ट्राली ही लगा दी है। लगभग 10 ट्राली अन्ना और लोगों की भीड़ को फिल्मी अंदाज में पेश करने में लगी रही जिससे उनकी दुकान अच्छी चले। सारे चैनलों के लिए इस समय दिवाली ( पश्चिमबंग वाले दिवाली को दुर्गा पुजा समझें) है। एक भी पटाखा (खबर) फुस्स्स (छूटना) नहीं होना चाहिए वरना पूरे समाज (दूसरे चैनलों) के सामने किरकिरी हो जाएगी। इन्हें देखकर तो 'पीपली लाईव' का वो सीन याद आता है जब नत्था को कवर करने के लिए मीडिया दिन-रात नत्था पर ही कैमरा फोकस किए हुए रहती है। उसके बाद मीडिया किन-किन चीजों का पोस्टमार्डम कर डालती है वो तो आपको याद ही होगा।

एक बात तो साफ तौर पर गौर की जा सकती है कि ये आंदोलन जितना अन्ना लड़ रहे हैं उतना मीडिया भी लड़ रही है। मीडिया का इस स्तर पर उतरना कितना सही है, ये तो आंदोलन खत्म होने के बाद ही पता चलेगा। लेकिन इतना तो साफ है कि जिस तरह खाड़ी युद्ध के समय सीएनएन ने लाइव कवरेज करके पूरी दुनिया को अंचभित कर दिया था और पुरी दुनिया में टीवी पत्रकारिता को लेकर एक नई बहस छिड़ गई थी। उसी तरह का बहस अन्ना के आंदोलन के कवरेज पर भी उठने वाला है। बहुत संभव है कि मीडिया का ये कवरेज पत्रकारिता के छात्रों के लिए शोध का पंसदीदा विषय बन जाए।

ये भी देखने वाली बात है कि इस दौरान मीडिया पर जितनी भी खबरें आई है वो सभी अन्ना के आंदोलन का समर्थऩ करती दिखती है या ये कहे कि मीडिया अन्ना के आंदोलन से संबधित कोई भी नकारात्मक खबरें पेश नहीं कर रही है। मीडिया का ये व्यवहार समझ से परे है। लेकिन क्या ये कहा जा सकता है कि मीडिया किसी खास इरादे से प्रेरित होकर ऐसा व्यवहार कर रही है। जो भी हो, इस सवाल का जवाब भी आंदोलन की आंच थमने के बाद आ जाएगा। लेकिन तब तक इंतजार किसे है। कई विद्वान अपनी समझ के हिसाब से इसका नक्शा बनाने में लगे हैं। खैर, जो भी हो लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में हर कोई अन्ना के साथ है। लेकिन मीडिया का खुल कर अन्ना को समर्थन देना गंभीर चिंता का विषय है। आखिर मीडिया का काम किसी एक पक्ष को ज्यादा महत्व न देकर दोनों पक्ष को सतुंलित महत्व देना होता है। ऐसे में टीम अन्ना भी मीडिया के इस व्यवहार का फायदा उठाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही है।