गुरुवार, 27 जनवरी 2011

स्वामी अग्निवेश के साथ एक मुलाकात


 (an interview with swami agnivesh)
भाग:- दो
 देश में उदारीकरण अपनाये जाने के बाद भारत और इंडिया के बीच की खाई बहुत बढ़ गयी है। इस विषमता ने देश के समक्ष कई समस्याओं को जन्म दिया है। इस पर आपका क्या विचार है?
जिस समय देश में औद्योगिकरण पहुंचा भी नहीं था उस समय 1909 में गांधीजी हिन्द स्वराज में कहते हैं कि “यह विकास नहीं शैतानी है“। इसकी मूल अवधारणा हिंसा पर आधारित है और विषमता ही सबसे बड़ी हिंसा है। इंसान और इंसान के बीच में जन्म के आधार पर पहचान, जातिवाद का विभेद, लिंग का विभेद, बेटा-बेटी का विभेद, गोरे-काले का विभेद, गरीब-अमीर का विभेद,ये चार-पांच  तरह के विभेद है। इन्हें बिल्कुल नहीं मानना है बल्कि एक समतामूलक समाज बनाना है। इससे न तो गांव-शहर के बीच विषमता रह सकती है न ही शहर के अन्दर अमीरी-गरीबी, ऊंची जात-छोटी जात और न ही बेटा-बेटी का फर्क रह सकता है। शिक्षा के माध्यम से सबको समान अवसर मिलें। ये सब हमारी सबसे पहली प्रतिबद्धताएं होनी चाहिए। अशिक्षा ही विषमता को और गहरा कर रही है। पहले से जो पिछड़े हैं वो और भी पिछड़े होते जा रहे हैं। उसकी तरफ कोई ध्यान नहीं देता बल्कि ऊपर के पदों के लिए आरक्षण की सब कोशिश कर रहे हैं। सबसे बड़ी चीज यह है कि हमारे जो शिक्षा विद्यालय हैं उनमें हर बच्चे को समान शिक्षा मिले। अमेरिका जैसा देश जिसको हम पूंजीवादी देश कहते हैं वहां अधिक समता है शिक्षा में बजाय भारत जैसे तथाकथित समाजवादी देश में। शिक्षा में समता पर जोर दीजिए। और ये जितनी दिवारें जन्म के आधार पर हमनें उलटी बुद्धि से बना रखी हैं। इन सभी सड़ी-गली मान्यताओं, रूढ़ीयों को तोड़ना बहुत जरुरी है।
स्वामीजी अभी हाल में अरुंधती राय ने कश्मीर पर अपना विवादास्पद विचार व्यक्त किया था। इस पर आपके क्या विचार हैं?
मै सबसे बड़ी बात यह कहना चाहता हूँ  कि अरुंधती राय की मै बेहद इज्जत करता हूँ । वो इसलिए कि वो बेलाग-बेखौफ होकर अपने विचार रखती है। अपने आप में यह एक बहुत बड़ी बात है। उसको मै गांधी का या किसी बुद्ध का रूप समझता हॅू। वो इस बात की परवाह नहीं करती कि बात आपको पसंद आ रही है या नहीं या आप उसपर पत्थर फेकेगें, गाली देगें या प्यार करेगें। मतलब कि उसके जो अंन्दर है वही बाहर है। बाकि किसी संदर्भ में किसी को लग सकता है कि नहीं, ऐसा नहीं वैसा होना चाहिए तो उसके साथ बैठे, बात करे। वो बात कह रही है, पत्थर नहीं मार रही है या बंदूक नहीं उठा रही है कि मेरी बात को मानो। वो, एक अकेली औरत अपने आप को "minority of one" कहती है। एक औरत कलम लेकर कोई बात कह रही है तो उसको भी सुनने से कोई समाज और राष्ट्र-राज्य घबरा जाए तो इससे ज्यादा नालायकी कुछ नहीं है। एक औरत की बात को सुनने से कोई घबरा जाए कि अरे क्या कह दिया? क्यों कह दिया? और उसको दबाने की कोशिश हो रही है। उसको गिरफ्तार करो, धारा लगाओ। ये तो सबसे गए-गुजरे समाज की पहचान है। उसके सुनो, समझो। उससे सहमत नहीं हो तो कहो कि हम आपसे सहमत नहीं  है। वो नहीं कह रही है कि आपको जरुर होना पड़ेगा। उसके पास सरकार जैसी ताकत भी नहीं है। वह जैसा अनुभव कर रही है बोल रही है। यह बहुत बड़ी बात है। हमारे अन्दर भी यही साहस होना चाहिए।
माओवादियों और सरकार के बीच मध्यस्ता के लिए आप सामने आये थे। उसका क्या हुआ?
काफी कुछ सफलता मिल रही थी। उनका(माओवादियों) जबाब भी आ गया था। बातचीत के लिए वे (माओवादी) आगे आ रहे थे, चिट्ठी लिखकर के उन्होंने कहा था। लेकिन अचानक उस व्यक्ति (चिरकुरी राजकुमार आजाद) को मार डाला गया, जिसने हमें पत्र लिखा था। उसके साथ हेमचन्द्र पांडे को भी मार डाला गया।
इसमें आप किसका हाथ मानते है?
 इसमें मै सरकार का हाथ मानता हूँ । इसलिए बार-बार मांग कर रहा हूँ  कि न्यायिक जांच कराओ। न्यायिक जांच का वादा करके प्रधानमंत्री स्वयं पिछे हट रहे हैं और जांच नहीं करा रहे हैं। मै इसे प्रधानमंत्री की बहुत बड़ी कमजोरी मानता हॅू। अब मुझे उनकी सदाशयता के ऊपर ही अविश्वास हो रहा है। वो अन्दर से ईमानदार नहीं हैं। वो नहीं चाहते कि उनके साथ बातचीत हो और बातचीत से ही कोई समाधान निकले।
 मतलब आप यह मानते है कि सरकार ने हिंसा का जो रास्ता नक्सलियों को दबाने के लिए अपनाया है। वह गलत है?
 बेहद! बेहद गलत है। ये हिंसा का रास्ता नहीं है। ये तो धोखेबाजी का, अविश्वास का रास्ता है। जिसको आप कह रहे हैं. कि आओ बातचीत करो और जब वह बातचीत के लिए बाहर आता है तो आप उसे पकड़ कर मार डालते हैं। ये तो घटिया से घटिया स्तर का चरित्र है। अगर कोई दूत संदेश ले कर के आप के पास आ रहा हो तो आप तो इतना तो करेगें कि आप संदेश लेंगे और जाने देंगे। तभी तो कोई आपसे बात करेगा। उसको (आजाद) बाहर निकलवाया किसी बहाने से और फिर उसको मार डाला। और मेरे जैसे सन्यासी को बीच में डाल दिया। मै हिंसा का घोर विरोधी हॅू। आपरेशन ग्रीनहंट का विरोधी। नक्सली हिंसा का विरोधी। मै तो पशु-पक्षी, प्राणी की भी हिंसा बर्दाश्त नहीं कर सकता। लेकिन मुझे बीच में चिट्ठी पकड़ा कर कहा गया कि आप हमारी बातचीत कराइये। मै बातचीत कराने के लिए आया और मेरे साथ ही धोखा हो गया।
 आज हमारी सरकार विभिन्न घोटालों और भ्रष्टाचार के दलदल में फंसी पड़ी है। इसमें नेता, मंत्री और अफसर सभी शामिल हैं। इस पर आपका क्या कहना है?

 अन्दर से बहुत ही घटिया और गंदे लोग सरकार में बैठे हुए हैं। इनका एक-एक का घोटाला, इनके एक-एक के रिश्तेदारों के सारे घोटाले इस बात को बयान करते हैं। इनके पैसे कहां जमा है? देश में-विदेश में। हमारे चारो तरफ जो सारा तंत्र है वो एकदम सढ़ंाध फैला रहा है। एक के बाद एक घोटाले हो रहे हैं। और हम ऐसा सोच रहे है कि अरे ये तो होता ही रहता है। क्या होना है? कुछ नहीं होना है। जो युवा पीढ़ी है उसके अन्दर एक आक्रोश उमड़नी चाहिए। इनमें से एक घटना का भी समुचित इलाज करने के लिए देशकृत संकल्प हो तो सारी व्यवस्था सुधर सकती है। रोज के हिसाब से घोटाले हो रहे हैं और हम फिर भी शांत बैठे हुए हैं। पत्रकारिता की ट्रेनिंग ले रहे हैं। क्या करोगे बताओ पत्रकारिता की ट्रेनिंग लेकर? ये सारे जिनको हम नेता मान रहे हैं, इनकी जगह जेल में होनी चाहिए। इनमें से कई को सजाए मौत होनी चाहिए। हमारे समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हम रोज पढ़ रहे हैं और रोज कुढ़ रहे हैं। लेकिन कोई ज्वाला नहीं फुट रही है। वो एक चुनौती है जिसे हरेक को महसुस करनी चाहिए।

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

61 वें  गणतंत्र दिवस की वास्तविकता


26 जनवरी 1950 को जब देश पहली बार गणतंत्र दिवस मना रहा था तब लोगों की आंखों में एक चमक थी कि अब वे गुलामी की निशानियों और विषमताओं को खत्म करते हुए सर्वागिण विकास की ओर बढ़ेगे। तब से लेकर अब तक गंगा में काफी पानी बह चुका है। और यमुना में तो पानी बहने लायक बचा भी नहीं। आज 26 जनवरी 2011 को जब हम 61वॉ गणतंत्र दिवस मना रहे है तो लोगों की आंखों में क्या है विकास की संतुष्टि या व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश? यह एक बड़ा सवाल है।

     यह सही है कि पहले गणतंत्र दिवस के समय 1.9 प्रतिशत हमारी विकास दर थी आज 9 प्रतिशत के लगभग। तब 18 प्रतिशत लोग साक्षर थे तो अब 68 प्रतिशत। तब 48 प्रतिशत लोग गरीब माने जाते थे तो अब 37.2 प्रतिशत। लेकिन यह भी सच है कि आज जब सरकार 61वॉ गणतंत्र दिवस मना रही है तब कोई किसान आत्महत्या कर रहा होगा या किसी आदिवासी को माओवादी बता कर गोली मारा जाता होगा या फिर कोई मॉ अपने बच्चे को पानी उबाल कर खिला रही होगी या फिर किसी दूसरे विनायक सेन को राष्ट्रद्रोह की सजा देने की तैयारी चल रही होगाी।

       अर्जुन सेनगुप्ता की रिर्पोट के मुताबिक देश की 78 प्रतिशत आबादी 20 रुपये रोज पर गुजारा करती है। दूसरे रिर्पोट से यह पता चलता है कि देश के 47 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। इससे यह पता चलता है कि देश ने कितना विकास किया है। 1991 में सरकार ने उदारीकरण को अपनाया ताकि देश का विकास हो सके। लेकिन इस उदारीकरण ने अग्रेजों की भांती देश को एक बार फिर दो भागों में बांट दिया है। एक तरफ शहरी इंडिया तो दूसरी तरफ ग्रामीण भारत।

     इस शहरी इंडिया के 602 लोग अरबपतियों में शुमार किये जाते हैं वहीं दूसरी तरफ ग्रामीण भारत में एक हफ्ते में 400 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं। भूख से, कुपोषण से, बिमारी से, ठंड से लोग मारे जा रहे हैं। सरकार को इस बात की चिंता नहीं है। दरअसल गरीब किसी भी कारण मरे सरकार के लिए चिंता की बात नहीं हैं। लेकिन यदि नीरा राडिया का टेप लिक हो जाता है या विदेशों में काला धन जमा करने वालों का नाम उजागर करने की बात की जाती है तो सरकार को चिंता हो जाती है।

दरअसल नीरा राडिया के टेप को सुनकर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकार किस तरह चलती है। उद्योगपतियों ने सरकार पर पूरी तरह अपनी पकड़ बना ली है उनके लिए कांग्रेस जैसी पार्टियां दुकान हो गई है। उद्योगपतियों, नेताओ, मंत्रियों, मीडिया और बड़े सरकारी अधिकारियों ने मिलकर जिस गठजोड़ को कायम किया है वह अपने एक खास तबके के हित के लिए काम कर रहा है। लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा से यह देश कोसो दूर चला गया है और जिस ’’समाजवादी’’ शब्द को 1976 में 44वॉ संविधान संशोधन करके प्रस्तावना में जोड़ा गया था। उसके तो अब परखच्चे भी उड़ गये हैं।

           देश में घोटालों की बारिश हो रही है। राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, जमीन घोटाला, आर्दश हाउसिंग घोटाला या फिर कोई और घोटाला हो। यह सब अब आम बात हो गई है। सरकार ने इन घोटालों पर कभी भी कड़ा रुख नहीं अपनाया है बल्कि सम्बधित मंत्री का इस्तीफा ही आज सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि बन गयी है। दूसरी तरफ सरकारी उपेक्षा का शिकार होकर आज कई क्षेत्रों में नक्सलवाद तेजी से बढ़ रहा है। कई क्षेत्रों में अलगाववाद की आवाज बुलंद की जा रही है। जो इस व्यवस्था की कमजोरी की ओर इशारा करता है। आज भी देश के अधिकांश कानून अंग्रेजो के जमाने के हैं। जिसके चलते आज भी हमें गुलामों की तरह शासित किया जाता है। सरकार के खिलाफ उठने वाली अब हर आवाज को कुचला जाने लगा है चाहे वह आवाज अहिसंक हो या हिंसक। जिसकी ताजा मिसाल है समाजसेवी विनायक सेन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा। जिसमें उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है।

एक बार फिर यह याद दिला दें कि आज देश 61वॉ गणतंत्र दिवस मना रहा है। आज राष्ट्रपति फिर बताएगी कि देश की विकास दर इस साल कितनी रहेगी। लेकिन वे क्या ये बताएंगी कि आजादी के बाद से अब तक जो 500 अरब डॉलर विदेशों में काले धन के रुप में जमा किया गया है उसे वापस कैसे लाया जाए? मंहगाई कैसे रोकी जाए? लोगों के असंतोष को कैसे शांत किया जाए? कैसे सता को उद्योगपतियों के हाथों में जाने से रोका जाए? ताकि इस देश की अधिकांश समस्याओं को सुलझाया जा सके। शायद नहीं!

                                                                                                                             रमेश भगत

सोमवार, 24 जनवरी 2011

पहली बार आईआईएमसी में लगी पुस्तक प्रदर्शनी

  पहली बार आईआईएमसी में लगी पुस्तक प्रदर्शनी ­­­­

कहते हैं किताब इंसान का सबसे अच्छा साथी होता हैं। देश दुनिया की तमाम बातें हम किताबों से जान सकते हैं, समझ सकते हैं और अपना एक विचार भी बना सकते हैं। किताबों के इसी महत्व को समझते हुए भारतीय जनसंचार संस्थान ने 20 जनवरी को पुस्तक
प्रदर्शनी का आयोजन करवाया। मंच पर आयोजित इस पुस्तक प्रदर्शनी का शुभारंभ संस्थान के निदेशक सुनित टंडन ने किया। यह प्रदर्शनी काफी सफल रही। इस पुस्तक प्रदर्शनी की खास बात यह रही कि यह पूरी तरह मीडिया पर आधारित पुस्तकों की प्रदर्शनी थी। इस प्रदर्शनी में दस से अधिक पुस्तक विक्रेताओं ने भाग लिया। ये पुस्तक विक्रेता अपने साथ कई प्रकाशनों की किताबें लाये थे। ये किताबें हिन्दी और अंग्रेजी दोनो भाषाओं में थी। लेकिन अंग्रेजी भाषाओं की किताबों की बहुलता रही। इस पुस्तक प्रदर्शनी में संस्थान के छात्र-छात्राओं, शिक्षक-शिक्षकाओ ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। विभिन्न विभागों के प्रमुखों ने अपने-अपने विचारों के हिसाब से कई पुस्तकों की सिफारिश संस्थान के पुस्तकालय के लिए की। हिन्दी पत्रकारिता के प्रमुख डॉ आनन्द प्रधान ने छात्रों के द्वारा सुझाए गए किताबों की भी सिफारिश पुस्तकालय के लिए की। संस्थान में पढ़ने वाले विदेशी छात्र-छात्राओं ने भी इस पुस्तक प्रदर्शनी में भाग लिया। उन्होंने कई किताबों की खरीददारी भी की। अपने मतलब की किताब ढूंढ रही अफगानिस्तान की एक छात्रा ने बताया कि “यह पुस्तक प्रदर्शनी काफी अच्छा है। यहां आकर काफी खुशी हो रही है। यहां मीडिया की ढेरों की किताबें है। कुछ ऐसी भी किताबें हैं जो मेरे देश अफगानिस्तान में नहीं मिलती। मैने तो कुछ किताबों को खरीदा भी“। प्रदर्शनी में कई प्रकाशनों की किताबें लेकर आए पुस्तक विक्रेता ”सेलेक्ट बुक सर्विस” के सुशील कपूर ने बताया कि यह प्रदर्शनी काफी अच्छी रही। पुस्तकालय के लिए ढेर सारी
किताबों की सिफारिश की गई। साथ ही कई छात्रों ने किताबों को खरीदा भी। 2009 में नेशनल बूक ट्रस्ट द्वारा करवाये गए एक सर्वे में यह सामने आया कि देश के कुल साक्षर युवाओं में से मात्र 25 प्रतिशत युवा ही किताबें पढ़ते हैं। इस सर्वे में मजेदार बात यह रही कि इसमें से 18‐8 प्रतिशत युवा अपने माता-पिता के कहने पर ही पढ़ने के लिए प्रेरित हुए हैं। यह एक चिंताजनक स्थिती है कि देश के युवाओं के बीच किताब पढ़ने का रूझान कम होता जा रहा है। इसका एक कारण तकनीक का विकास भी है। अब ज्यादातर लोग वेब में या कैडंल में ही किताबें पढ़ने लगे हैं। लेकिन यह भी सच है कि आज नए-नए प्रकाशन सामने आ रहे हैं। जो यह साबित करता है कि किताबों की दुनिया को कमजोर करके नहीं देखा जा सकता है।
             इस पुस्तक प्रदर्शनी में जब छात्र-छात्राओं से यह पूछा गया कि वे पुस्तक प्रदर्शनी को लेकर क्या सोचते हैं तो उनका जबाब था कि पहली बार संस्थान में ही आयोजित इस प्रदर्शनी का अनुभव काफी अच्छा रहा।भले ही आकड़ों में लोगों में किताब पढ़ने का रूझान कम दिखाई दे रहा हो लेकिन इस प्रदर्शनी में छात्रों और शिक्षकों के आवागमन को देखकर यही कहा जा सकता है कि किताबों की दुनिया अनोखी है और हर कोई इस अनोखी दुनिया में जीना चाहता है।
                                                                                                     रमेश कुमार

सोमवार, 17 जनवरी 2011

स्वामी अग्निवेश के साथ एक मुलाकात (an interview with swami agnivesh )

दिल्ली में पिछले साल नवम्बर में जब गाँधी कथा चल रही थी वहीं पर हमारी मुलाकात स्वामी अग्निवेश से हुई. स्वामी जी से मैंने कई विषयों पर बात की. यह विषय काफी गंभीर और महत्वपूर्ण  हैं. पेश है बातचीत के मुख्य 
अंश:
भाग: 1

 स्वामीजी गाँधी कथा आपको कैसी लगी?
 गाँधी कथा बहुत ही मार्मिक लगा. मुझे ऐसा लगा कि युवा पीढ़ी  को गांधीजी के प्रति आकर्षित होना चाहिए. गाँधी जी की तरह साधारण से साधारण व्यक्ति को अपने जीवन में प्रयोग करना चाहिए. इससे समाज में व्यापक बदलाव आएगा.
वर्तमान में गांधीजी की क्या प्रासंगिकता है?
गांधीजी की प्रासंगिकता तब तक रहेगी जब तक मनुष्य है. ये युग के साथ या 2010 के साथ नहीं जुड़ा है. मनुष्य के जीवन में जो आंतरिक उर्जा है. उसका वह कैसे विकास कर सकता है? ये द्वंद हमेशा रहेगा और रहा भी है. गाँधी हर इन्सान के लिए प्रासंगिक है जो अपनी तलाश कर रहा है.मै कौन हूँ ? किसलिए आया हूँ? मुझे सत्य के लिए जीना है. सत्य ही ईश्वर है ये जो तलाश है हर युग में रहेगी.
 कहा जाता है कि अहिंसा के लिए हिंसा से अधिक साहस और निडरता कि जरूरत होती है. इस साहस और निडरता को समाज में किस तरह से बढ़ाया जा सकता है?
 इसके लिए हम महापुरुषों के बारे में अधिक से अधिक देखे, सुने, पढ़े और जाने. गाँधी ही नहीं बल्कि हर देश या दुनिया के महापुरुषों के बारे में हमे जानना चाहिए. उनके जीवन में झाकने से हमें प्रेरणा मिलती है. मै समझाता हूँ कि हम सब के अन्दर अहिंसा की शक्ति है. जहाँ भी न्याय है, करुणा है, दया है, वहाँ अहिंसा की शक्ति है. अहिंसा हर इन्सान के दिल में है.जैसा की गाँधी कथा के दौरान कहा गया "ईश्वर सब जगह, सब के अन्दर है". और ईश्वर क्या है? वह सत्य है. इतना ही पर्याप्त  है. हर इन्सान के अन्दर यह क्षमता है कि वह असत्य से अन्याय से जूझ सके.
किसी भी बदलाव में युवाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. ऐसे में आप युवाओं को क्या सन्देश देना चाहेंगे? 
युवाओं को मै यह कहूँगा कि समाज को बदलने के लिए परिवर्तन का जो जज्बा होना चाहिए. उसके लिए जरूरी है कि पहले अपने आप को अन्दर से बदलना है. यदि आज के युवा ये बातें मंत्र ले ले कि समाज में जो सड़ांध है, विषमता है, शोषण है, एक दिन इसको बदलने के लिए मैं change agent बदलना चाहता हूँ तो मै खुद में बदलाव करू. Do the change what you want to see in the world. मुझे आज के युवाओं में बहुत संभावना दिखती है. आज के युवा पहले जैसा कुंठाग्रस्त जीवन नहीं जी रहें. कुंठाएं टूट रही हैं. युवा थोड़ा और जिम्मेदारी से सोच रहा है.
इस बदलाव में मीडिया की क्या भूमिका है?  

 मीडिया और बाकी राजनीति, अर्थनीति ये सब बहुत ही गौण चीज़े हैं. मीडिया को जो व्यक्ति बनाना चाहता है वही मीडिया बनता है. आपको जानकर यह आश्चर्य होगा कि ये जो टीवी, अख़बार को हम मीडिया मानते है, इनसे विचारों का जो सम्प्रेषण होता है, फैलाव होता है वो कम होता है. word of mouth से यानि word of mouth में आचरण की शक्ति जुड़ जाए तो कोई बात एक व्यक्ति कोई पांच व्यक्ति को बताये, अगले पांच और पांच को बताये तो 15 दिन तक पूरी दुनिया के इन्सान तक बात पहुँच जाएगी. मीडिया तो ये है. हम इसको नहीं समझ रहे हैं. हम ये देख रहे हैं कि अख़बार में कितना छप रहा है टीवी में कितना दिख रहा है, ये मीडिया की ताकत नहीं है. इससे कोई बदलाव नहीं आता. बदलाव की जो शक्ति है अपने आप में एक ईश्वर की गति से निकलती है. लेकिन वह काफी ठोस होनी चाहिए. दुःख यही है कि आज मीडिया माध्यमों से जितना भी परोसा जा रहा है वह बड़ा मिलावटी सा सत्य होता है, गहराई नहीं होती, वह छिछलापन सा होता है.
आज का जो युवा है वह गाँधी को कम सुनना चाहता है और मार्क्स को ज्यादा. बदलाव के लिए किनके विचार ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकते है?  

गाँधी हो, मार्क्स हो, लिंकन हो, लेनिन हो ये अलग- अलग नहीं है. ये सब बदलाव के प्रबल प्रतीक हैं. इनमे से किसी एक को भी पकड़कर ईमानदारी से चलोगे तो आप अपना भी कल्याण करेंगे और समाज का भी. मै इनको एक दुसरे का पूरक देखता हूँ गाँधी, मार्क्स, माओ, लेनिन जो भी लोग हैं. ईसा मसीह, मुहम्मद साहब, दयानद सरस्वती, विवेकानंद जो भी दिखते हैं, बुद्ध, नानक, कबीर ये सब के सब एक दुसरे के पूरक हैं. एक परिवार के सदस्य जैसे हैं. हालाँकि ये बाँट दिए गये हैं अलग-अलग धर्म या विचारधारा में. आप देखेंगे कि मार्क्स भी कह रहा है कि क्यों हो रहा है शोषण? इसे जानने के लिए उसके जड़ में जाओ. गाँधी भी कह रहे हैं सत्य में जाओ. यह एक ही दिशा है. एक दिशा में जाकर एक व्यक्ति एक पहलू को छू रहा है तो दुसरा दुसरे पहलु को छू रहा है, जैसे किसी ने न्यायदर्शन, किसी ने वेदांत, किसी ने मिमंत दर्शन. इससे ये अलग-अलग दर्शन दिखाई पद रहे हैं लेकिन हैं वो समग्र में एक ही.