मंगलवार, 8 मार्च 2011

8 मार्च को हर साल अंतर्राष्टीय महिला दिवस मनाया जाता है. इस दिन महिलाओं के मुद्दों पर सबसे ज्यादा बातें की जाती है. लेकिन देश में महिलाओं की जो स्थिति है, उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि महिलाओं कि स्थिति को सुधारने के लिए हमें प्रतिदिन कदम उठाने कि जरूरत है. महिलाओं की देश में क्या स्थिति है इसे इस कविता के जरिये समझा जा सकता है. यह कविता मैंने अपनी एक महिला मित्र के अनुभवों को सुनने के बाद लिखा है...  

लड़की होने की सज़ा

परायी हूं मै
या पराया बना दिया,
रिवाजों ने मुझे
बेगाना बना दिया।
जिस देश  ने हमें पूजा
देवी की तरह,
उसी ने हमें
दीवारों में समेट दिया।
कभी खिलते थे बाग
हमारे खिलखिलाने से,
अब तो जलते हैं जमाने
हमारे गुनगुनाने से।
सोलह क्या पार हुई,
जिन्दगी तार-तार हुई।
परिवार का प्यार मिला,
पढ़ाई तो पूरा किया
पर जब
वर और वधू साथ हुए
जीवन यूं बर्बाद हुए,
पढ़ाई हुई पीछे
मर्द हुआ आगे।
चौका-चूल्हा और बरतन
बच्चे-बच्चियां और समधन
इसी में बीता जीवन।
आँखों  के सपने,
आँखों  में ही रह गए।
लड़की होने की सज़ा
हम समझ गए।
                                                         
 रमेश  भगत

रविवार, 6 मार्च 2011


हथियार उठाना जरूरी है- अरुंधती रॉय


5 मार्च को जेएनयू परिसर में काफी गहमा-गहमी थी। क्योंकि अरुंधती रॉय "ऑपरेशन ग्रीनहंट" के खिलाफ अपने विचार व्यक्त करने के लिए कोयना मेस में आयी हुई थी। छात्र-छात्राओं से पूरा मेस भरा था। सबसे पहले छात्रों को प्रो. अमित भादूड़ी ने सम्बोधित किया। उन्होंने बताया कि 1991 के बाद से सत्ता  सरकार के हाथ से निकल कर उद्योगपतियों के हाथ में आ गयी है। जिसका उदाहरण है नीरा राडिया टेप कांड। उन्होंने यह भी कहा कि वास्तविकता में हमारा लोकतंत्र, लोकतंत्र है ही नहीं। लोकतंत्र देश के सभी वर्गो का प्रतिनिधित्व करता है लेकिन वर्तमान पश्चिमी उदारवादी भारतीय लोकतंत्र सिर्फ और सिर्फ उद्योगपतियों का ही प्रतिनिधित्व करता है।

यही कारण है कि ऑपरेशन ग्रीनहंट को अंजाम दिया जा रहा है ताकि कम्पनियां जितनी भी एमओयू (memorandome of understanding) पर हस्ताक्षर की है, उसे कार्यरुप दिया जा सके। साथ ही इन एमओयू को व्यवहार में लाने में रोड़ा बने माओवादियों को भी रास्ते से हटाया जा सके। नागरिक समाज के द्वारा ग्रीनहंट का घोर विरोध किये जाने के बाद भी इसे बंद नहीं किया जा रहा है।

प्रो. अमित भादूड़ी के सम्बोधन के बाद लेखिका और नक्सली आंदोलन की प्रबल समर्थक अरुंधती रॉय ने जैसे ही छात्रों को सम्बोधित करने के लिए माइक हाथ में ली, ABVP के सदस्यों ने नारेबाजी शुरू कर दी। देशद्रोही भारत छोड़ो, वन्दे मातरम् और भारत माता की जय जैसे नारे लगाने लगे। ABVP के सदस्यों को नारा लगाते देख AISA के सदस्यों ने भी नारेबाजी शुरू कर दी। बोल रे साथी हल्ला बोल, संघी गुंडों को मार भगाओ जैसे नारे लगाने लगे। तब जेएनयू के सुरक्षा अधिकारीयों ने ABVP के सदस्यों को शांत कराया। इस पर ABVP के सदस्य काला झंडा दिखाने लगे।

मामला शांत हुआ तो अरुंधती रॉय ने बोलना शुरू किया। उन्होंने कहा कि ऑपरेशन ग्रीनहंट माओवादियों के खिलाफ नहीं बल्कि यह गरीबों के खिलाफ युद्ध है। सेना की 200 बटालियनें छतीसगढ़ में मौजूद है। जिनके पास आधुनिक हथियार सहित तमाम सैन्य सुविधाएं है। दूसरी तरफ वे आदिवासी है जो अपने खनिजों की रक्षा के लिए अपने परम्परागत हथियारों से लड़ रहे हैं।

उन्होंने यह भी कहा कि दूसरे विश्वयुद्ध के समय बिट्रिश सरकार ने भारतीय सैनिकों को दूसरे देशों से लड़ने के लिए भेजी थी। लेकिन आज भारत सरकार अपनी सेना को अपने ही राज्यों में अपने ही नागरिकों  के खिलाफ उतार रही है। साथ ही पी. चिदम्बरम पुलिस और सेना को नक्सल प्रभावित राज्यों में भेज कर तथा उन्हें मजबूती प्रदान कर देश को पुलिस स्टेट बनाने में लगे हैं। ये पुलिसवालें इन क्षेत्रों में जाते हैं, आदिवासियों के घरों में ठहरते हैं, उन्हीं के यहां मुर्गा-मांस-दारु खाते-पीते हैं और उन्हीं की बहू-बेटियों से बलात्कार करते हैं।

ऐसे में आदिवासी क्या करेंगे? वे भी नक्सलियों का साथ देने लगते हैं क्योंकि नक्सली उन्हें इन पुलिसवालों से बचाते है। लगभग 30 सालों से माओवादी छतीसगढ़ में काम कर रहे हैं ताकि वे अपनी खनिज-सम्पदा और संस्कृति बचा सके। ग्रीनहंट को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि जिस तरह अमेरिका ने वियतनाम में निर्दोष लोगों को मारा था उसी तरह भारत सरकार छतीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल में कारवाई कर रही है। दरअसल राज्य इस समस्या का राजनीतिक समाधान नहीं चाहती, वह तो सैनिक समाधान में ही विश्वास करती है।

अरुंधती रॉय ने कॉग्रेस पर प्रहार करते हुए कहा कि राजीव गांधी ने भारतीय राजनीति के इतिहास में दो ताले खोले थे। पहला बाबरी मस्जिद का और दूसरा भारतीय अर्थव्यवस्था का। दोनों से दो आतंकवाद जन्म हुए। पहले से इस्लामिक आतंकवाद का जन्म हुआ तो दूसरे से नक्सली आतंकवाद का।
उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के बारे में कहा कि उन्हें विकास को बढ़ावा देने वाला मुख्यमंत्री कहा जाता है लेकिन गुजरात में हुए दंगों को कोई याद नहीं करता। अभी गोधरा कांड का फैसला तो आ गया लेकिन गुजरात दंगे का मामला अटका पड़ा है। अरुंधती रॉय के इतना कहते ही ABVP के सदस्यों ने फिर हंगामा शुरू कर दिया। इस पर अरुंधती रॉय ने चुटकी लेते हुए उनसे कहा कि थोड़ा चुप रहो थोड़ा चिल्लाओं।

उन्होंने भारतीय लोकतंत्र की खामियों को उजागर करते हुए कहा कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कभी चुनाव नहीं लड़े। कभी जनता का सामना नहीं किया। लेकिन जो लोग जनता का सामना कर के भी लोकसभा में आये हैं, उनमें से अधिकांश करोड़पति हैं, जो बताता है कि यह लोकतंत्र सिर्फ अमिरों के लिए है गरीबों के लिए नहीं।

उन्होंने यह भी कहा कि देश के रक्षा बजट पर हर साल वृद्धि की जाती है। परमाणु हथियारों का जखीरा खड़ा किया जा रहा है। लेकिन इनका कभी इस्तेमाल नहीं होगा सिवाए प्रदर्शनी में चक्कर लगाने के। यदि इसी पैसे को पिछड़े क्षेत्रों के विकास में लगाया जाता तो दृश्य कुछ और होता। अपने भाषण के अंत में वह एक सवाल छोड़ गयी कि क्या पहाड़ और नदियों के बिना आप जिंदा रह सकते है? क्या पहाड़ बाक्साइट के बिना जिंदा रह सकता है?

अंत में उन्होंने कई सवालों के जबाब भी दिए। ABVP के एक सदस्य रितेश ने यह पुछा कि छतीसगढ़ की पूर्व नक्सली उमा के बारे में आप क्या कहेंगी, जिसका माओवादियों ने ही बलात्कार किया था। इसपर अरुंधती रॉय ने कहा कि मै कोई नक्सली नहीं हूं और ना मैने कभी यह कहा है कि सभी नक्सली अच्छे, ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ होते हैं। गलती इनके द्वारा भी होती है।

दूसरा सवाल था कि क्या आप मानती है कि केरल और पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र है? उन्होंने कहा कि जहां तक मै जानती हूं करीब 30 सालों से सीपीएम का पश्चिम बंगाल में राज है। लेकिन वह लोकतांत्रिक तरीके से सरकार नहीं चला रही है। नीचे से ऊपर तक उनका कब्जा है जो जल्द ही टुटेगा।

तीसरा सवाल खुद मेरा था। वह यह था कि आदिवासी अपने परम्रागत हथियारों से आधुनिक हथियारों से लैस सेना से टक्कर ले रही है ऐसे में वह कभी भी सेना को नहीं हरा पाएगी तो क्यों न इस हिंसक आंदोलन को एक व्यापक अहिंसक जनआंदोलन में बदल दिया जाए? इस पर अरुंधती रॉय का कहना था कि जब सेना नक्सलियों को घेर ले तो फिर भूख हड़ताल करने से कोई फायदा नहीं होने वाला। यदि खनिजों के दोहन का इतिहास देखे तो पता चलेगा कि बिना हथियार उठाए काम नहीं चलेगा। हो सकता है कुछ जगहों में अहिंसक आंदोलन चल सकता है। लेकिन जैसी आज की परिस्थिती है उससे तो यही समझ में आता है कि हथियार उठाना जरुरी है।
 रमेश भगत