शनिवार, 5 नवंबर 2011

तालाश जारी है...


बीत गए बरस रास्तों में...
लेकिन तालाश जारी है...
 हम क्या थे और क्या हो गए....
 लेकिन तालाश जारी है...
कभी तुम्हारे पास थे
 आज तुम्हारे हो गए
 लेकिन तालाश जारी है...
खुद को पहचानने का दावा करते रहे....
 लेकिन खुद की तालाश जारी है
चाहु ओर ढुंढा खुदा को
अब खुद में खुदा की तालाश जारी है....

शनिवार, 20 अगस्त 2011

अन्ना का आंदोलन और मीडिया की दुकान


अन्ना का आंदोलन अपनी गति को प्राप्त कर रहा है या
मीडिया इसे तेजी से दौड़ा रहा है, इसे समझना आसान है। रामलीला मैदान में शुक्रवार यानी 19 अगस्त की रात को करीब 11 बजे अन्ना के समर्थकों की संख्या करीब 50 थी।
लेकिन जिस किसी ने उस रात खबरिया चैनलों पर अन्ना के आंदोलन की खबर देखी होगी, उसे यही लगा होगा कि अन्ना के समर्थकों की आपार भीड़ रामलीला मैदान पर उमड़ी पड़ी है। इसका फायदा  दोनों को यानी मीडिया और अन्ना के आंदोलन को हुआ। पहला फायदा तो चैनल वालों को हुआ कि उसकी टीआरपी बढ़ी। दूसरा, अन्ना के आंदोलन को छोटे फ्रेम में दिखाने के अलावा खबरिया चैनलों के पास कुछ नहीं था। भारतीय क्रिकेट टीम भी लगातार चौथे मैच में भी अपनी किरकिरी करा रही है। ऐसे में अन्ना के आंदोलन को चाट-मसाला लगा कर लोगों को उनके ड्राइंग रूम में पेश करना खबरिया चैनलों के लिए फायदेमंद रहा। चैनलों की दुकान भी खूब चली। लोग दौड़-दौड़ कर उनकी दूकान की तरफ भाग कर आ रहे थे कि कुछ ताजा न्यूज नास्ते में मिले।

 दूसरी तरफ अन्ना के आंदोलन को इसका फायदा दूसरे दिन हुआ यानी शनिवार, 20 अगस्त को । शनिवार को जितने भी लोगों ने टीवी या अखबारों में अन्ना के आंदोलन को बड़े चाव से नास्ते में लिया था, वे सीधे खाना खाने के लिए रामलीला मैदान की तरफ दौड़ पड़े। इससे  टीम अन्ना को भी लगा कि मामला आगे बढ़ रहा है, लोग अब जुड़ रहे हैं। शनिवार को दोपहर 2 बजे तक करीब 2 हजार लोग रामलीला मैदान में मौजूद होकर सरकार को कोसते हुए अन्ना को अपना समर्थन दे रहे थे। शाम होते-होते ये संख्या करीब 5 हजार तक आ पहुंची। फिर भी रामलीला मैदान का एक-चौथाई हिस्सा ही आंदोलनकारियों से भरा हुआ था बाकि का हिस्सा खाली पड़ा था। ज्यादातर युवा इस आंदोलन में शरीक होते दिख रहे थे। चारों तरफ एक ही शोर गुंज रहा था। 'अन्ना नहीं,ये आंधी है, देश का गांधी है'। नारों का दौर चलता रहा, जो थक गए वो साइड लग गए और जो खुद को टीवी में दिखने के लिए वहां गए थे वो खबरिया चैनलों के कैमरों के आगे-पीछे मंडराने लगे जैसे अकेली लड़की को देखकर लड़के मंडराते हैं।

खबरिया चैनल भी अपनी दुकान लगा कर तैयार बैठे हैं। 'सबसे तेज' तो 'आजतक' की खबर दिखाने में इतना मशगूल है कि वो रामलीला मैदान पर ही 'अन्ना की अगस्त क्रांति' शुरू कर दिया है। अन्य चैनल भी 'सबसे तेज' से खुद को कमतर नहीं देखना चाहते है इसलिए उन्होंने तो बकायदा ट्राली ही लगा दी है। लगभग 10 ट्राली अन्ना और लोगों की भीड़ को फिल्मी अंदाज में पेश करने में लगी रही जिससे उनकी दुकान अच्छी चले। सारे चैनलों के लिए इस समय दिवाली ( पश्चिमबंग वाले दिवाली को दुर्गा पुजा समझें) है। एक भी पटाखा (खबर) फुस्स्स (छूटना) नहीं होना चाहिए वरना पूरे समाज (दूसरे चैनलों) के सामने किरकिरी हो जाएगी। इन्हें देखकर तो 'पीपली लाईव' का वो सीन याद आता है जब नत्था को कवर करने के लिए मीडिया दिन-रात नत्था पर ही कैमरा फोकस किए हुए रहती है। उसके बाद मीडिया किन-किन चीजों का पोस्टमार्डम कर डालती है वो तो आपको याद ही होगा।

एक बात तो साफ तौर पर गौर की जा सकती है कि ये आंदोलन जितना अन्ना लड़ रहे हैं उतना मीडिया भी लड़ रही है। मीडिया का इस स्तर पर उतरना कितना सही है, ये तो आंदोलन खत्म होने के बाद ही पता चलेगा। लेकिन इतना तो साफ है कि जिस तरह खाड़ी युद्ध के समय सीएनएन ने लाइव कवरेज करके पूरी दुनिया को अंचभित कर दिया था और पुरी दुनिया में टीवी पत्रकारिता को लेकर एक नई बहस छिड़ गई थी। उसी तरह का बहस अन्ना के आंदोलन के कवरेज पर भी उठने वाला है। बहुत संभव है कि मीडिया का ये कवरेज पत्रकारिता के छात्रों के लिए शोध का पंसदीदा विषय बन जाए।

ये भी देखने वाली बात है कि इस दौरान मीडिया पर जितनी भी खबरें आई है वो सभी अन्ना के आंदोलन का समर्थऩ करती दिखती है या ये कहे कि मीडिया अन्ना के आंदोलन से संबधित कोई भी नकारात्मक खबरें पेश नहीं कर रही है। मीडिया का ये व्यवहार समझ से परे है। लेकिन क्या ये कहा जा सकता है कि मीडिया किसी खास इरादे से प्रेरित होकर ऐसा व्यवहार कर रही है। जो भी हो, इस सवाल का जवाब भी आंदोलन की आंच थमने के बाद आ जाएगा। लेकिन तब तक इंतजार किसे है। कई विद्वान अपनी समझ के हिसाब से इसका नक्शा बनाने में लगे हैं। खैर, जो भी हो लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में हर कोई अन्ना के साथ है। लेकिन मीडिया का खुल कर अन्ना को समर्थन देना गंभीर चिंता का विषय है। आखिर मीडिया का काम किसी एक पक्ष को ज्यादा महत्व न देकर दोनों पक्ष को सतुंलित महत्व देना होता है। ऐसे में टीम अन्ना भी मीडिया के इस व्यवहार का फायदा उठाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही है।
                                                                                                                
                                                                  

मंगलवार, 8 मार्च 2011

8 मार्च को हर साल अंतर्राष्टीय महिला दिवस मनाया जाता है. इस दिन महिलाओं के मुद्दों पर सबसे ज्यादा बातें की जाती है. लेकिन देश में महिलाओं की जो स्थिति है, उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि महिलाओं कि स्थिति को सुधारने के लिए हमें प्रतिदिन कदम उठाने कि जरूरत है. महिलाओं की देश में क्या स्थिति है इसे इस कविता के जरिये समझा जा सकता है. यह कविता मैंने अपनी एक महिला मित्र के अनुभवों को सुनने के बाद लिखा है...  

लड़की होने की सज़ा

परायी हूं मै
या पराया बना दिया,
रिवाजों ने मुझे
बेगाना बना दिया।
जिस देश  ने हमें पूजा
देवी की तरह,
उसी ने हमें
दीवारों में समेट दिया।
कभी खिलते थे बाग
हमारे खिलखिलाने से,
अब तो जलते हैं जमाने
हमारे गुनगुनाने से।
सोलह क्या पार हुई,
जिन्दगी तार-तार हुई।
परिवार का प्यार मिला,
पढ़ाई तो पूरा किया
पर जब
वर और वधू साथ हुए
जीवन यूं बर्बाद हुए,
पढ़ाई हुई पीछे
मर्द हुआ आगे।
चौका-चूल्हा और बरतन
बच्चे-बच्चियां और समधन
इसी में बीता जीवन।
आँखों  के सपने,
आँखों  में ही रह गए।
लड़की होने की सज़ा
हम समझ गए।
                                                         
 रमेश  भगत

रविवार, 6 मार्च 2011


हथियार उठाना जरूरी है- अरुंधती रॉय


5 मार्च को जेएनयू परिसर में काफी गहमा-गहमी थी। क्योंकि अरुंधती रॉय "ऑपरेशन ग्रीनहंट" के खिलाफ अपने विचार व्यक्त करने के लिए कोयना मेस में आयी हुई थी। छात्र-छात्राओं से पूरा मेस भरा था। सबसे पहले छात्रों को प्रो. अमित भादूड़ी ने सम्बोधित किया। उन्होंने बताया कि 1991 के बाद से सत्ता  सरकार के हाथ से निकल कर उद्योगपतियों के हाथ में आ गयी है। जिसका उदाहरण है नीरा राडिया टेप कांड। उन्होंने यह भी कहा कि वास्तविकता में हमारा लोकतंत्र, लोकतंत्र है ही नहीं। लोकतंत्र देश के सभी वर्गो का प्रतिनिधित्व करता है लेकिन वर्तमान पश्चिमी उदारवादी भारतीय लोकतंत्र सिर्फ और सिर्फ उद्योगपतियों का ही प्रतिनिधित्व करता है।

यही कारण है कि ऑपरेशन ग्रीनहंट को अंजाम दिया जा रहा है ताकि कम्पनियां जितनी भी एमओयू (memorandome of understanding) पर हस्ताक्षर की है, उसे कार्यरुप दिया जा सके। साथ ही इन एमओयू को व्यवहार में लाने में रोड़ा बने माओवादियों को भी रास्ते से हटाया जा सके। नागरिक समाज के द्वारा ग्रीनहंट का घोर विरोध किये जाने के बाद भी इसे बंद नहीं किया जा रहा है।

प्रो. अमित भादूड़ी के सम्बोधन के बाद लेखिका और नक्सली आंदोलन की प्रबल समर्थक अरुंधती रॉय ने जैसे ही छात्रों को सम्बोधित करने के लिए माइक हाथ में ली, ABVP के सदस्यों ने नारेबाजी शुरू कर दी। देशद्रोही भारत छोड़ो, वन्दे मातरम् और भारत माता की जय जैसे नारे लगाने लगे। ABVP के सदस्यों को नारा लगाते देख AISA के सदस्यों ने भी नारेबाजी शुरू कर दी। बोल रे साथी हल्ला बोल, संघी गुंडों को मार भगाओ जैसे नारे लगाने लगे। तब जेएनयू के सुरक्षा अधिकारीयों ने ABVP के सदस्यों को शांत कराया। इस पर ABVP के सदस्य काला झंडा दिखाने लगे।

मामला शांत हुआ तो अरुंधती रॉय ने बोलना शुरू किया। उन्होंने कहा कि ऑपरेशन ग्रीनहंट माओवादियों के खिलाफ नहीं बल्कि यह गरीबों के खिलाफ युद्ध है। सेना की 200 बटालियनें छतीसगढ़ में मौजूद है। जिनके पास आधुनिक हथियार सहित तमाम सैन्य सुविधाएं है। दूसरी तरफ वे आदिवासी है जो अपने खनिजों की रक्षा के लिए अपने परम्परागत हथियारों से लड़ रहे हैं।

उन्होंने यह भी कहा कि दूसरे विश्वयुद्ध के समय बिट्रिश सरकार ने भारतीय सैनिकों को दूसरे देशों से लड़ने के लिए भेजी थी। लेकिन आज भारत सरकार अपनी सेना को अपने ही राज्यों में अपने ही नागरिकों  के खिलाफ उतार रही है। साथ ही पी. चिदम्बरम पुलिस और सेना को नक्सल प्रभावित राज्यों में भेज कर तथा उन्हें मजबूती प्रदान कर देश को पुलिस स्टेट बनाने में लगे हैं। ये पुलिसवालें इन क्षेत्रों में जाते हैं, आदिवासियों के घरों में ठहरते हैं, उन्हीं के यहां मुर्गा-मांस-दारु खाते-पीते हैं और उन्हीं की बहू-बेटियों से बलात्कार करते हैं।

ऐसे में आदिवासी क्या करेंगे? वे भी नक्सलियों का साथ देने लगते हैं क्योंकि नक्सली उन्हें इन पुलिसवालों से बचाते है। लगभग 30 सालों से माओवादी छतीसगढ़ में काम कर रहे हैं ताकि वे अपनी खनिज-सम्पदा और संस्कृति बचा सके। ग्रीनहंट को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि जिस तरह अमेरिका ने वियतनाम में निर्दोष लोगों को मारा था उसी तरह भारत सरकार छतीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल में कारवाई कर रही है। दरअसल राज्य इस समस्या का राजनीतिक समाधान नहीं चाहती, वह तो सैनिक समाधान में ही विश्वास करती है।

अरुंधती रॉय ने कॉग्रेस पर प्रहार करते हुए कहा कि राजीव गांधी ने भारतीय राजनीति के इतिहास में दो ताले खोले थे। पहला बाबरी मस्जिद का और दूसरा भारतीय अर्थव्यवस्था का। दोनों से दो आतंकवाद जन्म हुए। पहले से इस्लामिक आतंकवाद का जन्म हुआ तो दूसरे से नक्सली आतंकवाद का।
उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के बारे में कहा कि उन्हें विकास को बढ़ावा देने वाला मुख्यमंत्री कहा जाता है लेकिन गुजरात में हुए दंगों को कोई याद नहीं करता। अभी गोधरा कांड का फैसला तो आ गया लेकिन गुजरात दंगे का मामला अटका पड़ा है। अरुंधती रॉय के इतना कहते ही ABVP के सदस्यों ने फिर हंगामा शुरू कर दिया। इस पर अरुंधती रॉय ने चुटकी लेते हुए उनसे कहा कि थोड़ा चुप रहो थोड़ा चिल्लाओं।

उन्होंने भारतीय लोकतंत्र की खामियों को उजागर करते हुए कहा कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कभी चुनाव नहीं लड़े। कभी जनता का सामना नहीं किया। लेकिन जो लोग जनता का सामना कर के भी लोकसभा में आये हैं, उनमें से अधिकांश करोड़पति हैं, जो बताता है कि यह लोकतंत्र सिर्फ अमिरों के लिए है गरीबों के लिए नहीं।

उन्होंने यह भी कहा कि देश के रक्षा बजट पर हर साल वृद्धि की जाती है। परमाणु हथियारों का जखीरा खड़ा किया जा रहा है। लेकिन इनका कभी इस्तेमाल नहीं होगा सिवाए प्रदर्शनी में चक्कर लगाने के। यदि इसी पैसे को पिछड़े क्षेत्रों के विकास में लगाया जाता तो दृश्य कुछ और होता। अपने भाषण के अंत में वह एक सवाल छोड़ गयी कि क्या पहाड़ और नदियों के बिना आप जिंदा रह सकते है? क्या पहाड़ बाक्साइट के बिना जिंदा रह सकता है?

अंत में उन्होंने कई सवालों के जबाब भी दिए। ABVP के एक सदस्य रितेश ने यह पुछा कि छतीसगढ़ की पूर्व नक्सली उमा के बारे में आप क्या कहेंगी, जिसका माओवादियों ने ही बलात्कार किया था। इसपर अरुंधती रॉय ने कहा कि मै कोई नक्सली नहीं हूं और ना मैने कभी यह कहा है कि सभी नक्सली अच्छे, ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ होते हैं। गलती इनके द्वारा भी होती है।

दूसरा सवाल था कि क्या आप मानती है कि केरल और पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र है? उन्होंने कहा कि जहां तक मै जानती हूं करीब 30 सालों से सीपीएम का पश्चिम बंगाल में राज है। लेकिन वह लोकतांत्रिक तरीके से सरकार नहीं चला रही है। नीचे से ऊपर तक उनका कब्जा है जो जल्द ही टुटेगा।

तीसरा सवाल खुद मेरा था। वह यह था कि आदिवासी अपने परम्रागत हथियारों से आधुनिक हथियारों से लैस सेना से टक्कर ले रही है ऐसे में वह कभी भी सेना को नहीं हरा पाएगी तो क्यों न इस हिंसक आंदोलन को एक व्यापक अहिंसक जनआंदोलन में बदल दिया जाए? इस पर अरुंधती रॉय का कहना था कि जब सेना नक्सलियों को घेर ले तो फिर भूख हड़ताल करने से कोई फायदा नहीं होने वाला। यदि खनिजों के दोहन का इतिहास देखे तो पता चलेगा कि बिना हथियार उठाए काम नहीं चलेगा। हो सकता है कुछ जगहों में अहिंसक आंदोलन चल सकता है। लेकिन जैसी आज की परिस्थिती है उससे तो यही समझ में आता है कि हथियार उठाना जरुरी है।
 रमेश भगत





सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

चुनावी नैया और बजट की चाशनी



रमेश भगत

मंहगाई की मार से परेशान आम जनता को खुश करने के लिए वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने इस बार भी लोकलुभावन आम बजट पेश किया। इस बजट में सभी को संतुष्ट करने की कोशिश की गई है। जैसे- ‘‘भारत निमार्ण‘‘ योजना के लिए 58,000 करोड़ रुपए, सर्वशिक्षा अभियान में 21,000 करोड़ रुपए, स्वास्थय क्षेत्र में 20 प्रतिशत राशि की बढ़ोतरी और महात्मा गांधी नरेगा के तहत मजदूरी में वृद्धि की गई। इस तरह की कई अन्य घोषणाएं की गई है। लेकिन किसी भी क्षेत्र में नया कदम उठाने का प्रयत्न नहीं किया गया है, जिससे इन योजनाओं में फैली भ्रष्टाचार को कम किया जा सके। इस बजट को देखकर यही कहा जा सकता है कि सरकार इसी स्थिती से खुश है, जैसा मौजूदा दौर में सबकुछ चल रहा है।
वित्त मंत्री ने काला धन के लिए 5 सुत्रीय योजना बनाने की घोषणा की है। लेकिन जब देश की अथाह संपति काले धन के रुप में विदेशों में मौजूद हो तो उसे वापस लाने के लिए ठोस कदम उठाने की जरुरत थी। महिलाओं के लिहाज से भी इस बजट में सरकार की तरफ से कोई खास ऐलान नहीं किया गया हैं। हालांकि म्युचुअल फंड में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के ऐलान से बाजार को थोड़ा फायदा जरुर होगा। इस घोषणा को सुनकर शेयर बाजार में उछाल भी देखा गया है।


इस वर्ष पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाला है। इस बात को ध्यान में रखकर सरकार ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए कई लोकलुभावन कदम उठाए है। जिनमें रसोई गैस, किरासन तेल में सब्सिडी, एसटी-एससी छात्रों को वजीफा, आगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के वेतन में वृद्धि आदि। सरकार ने इस बजट का अपनी चुनावी योजनाओं को पुरा करने का प्रयास करेगी। लेकिन क्या यह बजट आम आदमी को मंहगाई से दूर करने में और कालाधन वापस लाने में कारगर होगी? यह तो आने वाला समय ही बताएगा।


शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

रेल पर हावी राजनीति




उम्मीदों के अनुरुप ममता बनर्जी ने इस बार भी यात्री भाड़े में किसी तरह की बढ़ोतरी नहीं की। साथ ही 56 नई रेलगाड़ियां भी चलाने की घोषणा  की। इसके अलावा भी कई तरह की घोषणाएं उन्होंने की। लेकिन जो बात सबसे गौर करने वाली है, वो यह है कि ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर यह बज़ट पेश किया। पश्चिम बंगाल के लिए रेलमंत्री ने विशेष रुप से कई घोषणाएं की। जैसे- कोलकाता में 50 नई सेवाएं शुरू करना, मेट्रो नेटवर्क को बढ़ावा देना, वर्धमान-हावड़ा के बीच नॉन स्टोप ट्रेन शुरू करना, नंदीग्राम और सिंगुर में भी कुछ परियोजनाएं शुरू करना इत्यादी, ताकि ममता बंगाल विधानसभा चुनाव में अपनी पकड़ मजबुत कर सके।


रेल बज़ट पेश करते हुए रेलमंत्री ने कहा कि वे हरित क्रांति की तरह रेल के जरिये सामाजिक क्रांति लाना चाहती है। ताकि गरीब अधिक से अधिक रेल का इस्तेमाल कर सके। इसके लिए जितनी भी तरह की योजनाएं लायी जाएगीं वो प्रधानमंत्री रेलवे विकास योजना के अंतगर्त होगीं। लेकिन रेलमंत्री ममता बनर्जी ने यात्रियों की सुविधाओं में बढ़ोतरी के लिए कोई भी कदम नहीं उठाये। यात्रियों की यह आम शिकायत होती है कि रेलगाड़ियों में साफ-सफाई नहीं होती, पानी की किल्लत अक्सर होती है, खाने की गुणवत्ता में भी ध्यान नहीं दिया जाता है, जिससे अक्सर यात्रियों को फूड प्वाइजनिगं का शिकार होना पड़ता है। यह सोचने वाली बात है कि जब यात्रियों को बुनियादी सुविधाएं भी नहीं होगी तो सामाजिक क्रांति किस बात की होगी।

देश में यातायात के लिए सबसे ज्यादा रेलगाड़ियों का ही इस्तेमाल किया जाता है। जिससे नई रेलगाड़ियों के लिए दबाव काफी बढ़ जाता है। इसलिए कई नई रेलगाड़ियों को शुरू किया गया, कई के फेरे बढ़ाए गए तो कई के स्टोपेज। वहीं ममता बनर्जी ने डबल डेकर ट्रेन की शुरूआत कर रेलगाड़ियों में भीड़ कम करने की कोशिश की है। यह एक अच्छी पहल है। लेकिन रेलगाड़ियों में सुरक्षा का मु़द्दा हमेशा से महत्वपुर्ण रहा है। खासकर महिलाओं का तो और भी। महिलाओं की सुरक्षा को लेकर किसी भी प्रकार की घोषणा इस बज़ट में नहीं की गई है। महिलाओं के नाम पर सिर्फ यह किया गया कि 58 साल की उम्र से अधिक की महिलाओं को वरिष्ठ नागरिक घोषित किया गया।


नक्सली क्षेत्रों में रेल परियोजना शुरू करना एक अच्छा कदम है। जिससे इस क्षेत्र के लोग देश के अन्य भागों से जुड़ सकेंगे। साथ ही रेलवे के कारण इस क्षेत्र में आर्थिक विकास भी मजबूत हो सकेगा।

रेल बज़ट 2011-2012 की कुल वार्षिक योजना 57,630 करोड़ रुपए है। इस बज़ट में यह बताया गया है कि रेलवे को 92 रुपये कमानें में 100 रुपए खर्च करना पड़ रहा है। वहीं छठा वेतन आयोग को लागू करने से भी रेलवे को काफी नुकसान उठाना पड़ा है। लेकिन कलकत्ता से रेल मंत्रालय चलाने वाली ममता बनर्जी ने कभी भी रेल को ज्यादा तवोज्जू नहीं दी।  जिसके कारण ना सिर्फ रेलवे को नुकसान उठाना पड़ा बल्कि रेलयात्रियों की सुविधाओं में भी गिरावट आयी है। इस बज़ट में जितनी घोषणाएं की गई हैं,  वो कितनी कारगर साबित होती है वो तो आने वाला समय ही बताएगा।


                                                                                                                                     रमेश भगत








गुरुवार, 27 जनवरी 2011

स्वामी अग्निवेश के साथ एक मुलाकात


 (an interview with swami agnivesh)
भाग:- दो
 देश में उदारीकरण अपनाये जाने के बाद भारत और इंडिया के बीच की खाई बहुत बढ़ गयी है। इस विषमता ने देश के समक्ष कई समस्याओं को जन्म दिया है। इस पर आपका क्या विचार है?
जिस समय देश में औद्योगिकरण पहुंचा भी नहीं था उस समय 1909 में गांधीजी हिन्द स्वराज में कहते हैं कि “यह विकास नहीं शैतानी है“। इसकी मूल अवधारणा हिंसा पर आधारित है और विषमता ही सबसे बड़ी हिंसा है। इंसान और इंसान के बीच में जन्म के आधार पर पहचान, जातिवाद का विभेद, लिंग का विभेद, बेटा-बेटी का विभेद, गोरे-काले का विभेद, गरीब-अमीर का विभेद,ये चार-पांच  तरह के विभेद है। इन्हें बिल्कुल नहीं मानना है बल्कि एक समतामूलक समाज बनाना है। इससे न तो गांव-शहर के बीच विषमता रह सकती है न ही शहर के अन्दर अमीरी-गरीबी, ऊंची जात-छोटी जात और न ही बेटा-बेटी का फर्क रह सकता है। शिक्षा के माध्यम से सबको समान अवसर मिलें। ये सब हमारी सबसे पहली प्रतिबद्धताएं होनी चाहिए। अशिक्षा ही विषमता को और गहरा कर रही है। पहले से जो पिछड़े हैं वो और भी पिछड़े होते जा रहे हैं। उसकी तरफ कोई ध्यान नहीं देता बल्कि ऊपर के पदों के लिए आरक्षण की सब कोशिश कर रहे हैं। सबसे बड़ी चीज यह है कि हमारे जो शिक्षा विद्यालय हैं उनमें हर बच्चे को समान शिक्षा मिले। अमेरिका जैसा देश जिसको हम पूंजीवादी देश कहते हैं वहां अधिक समता है शिक्षा में बजाय भारत जैसे तथाकथित समाजवादी देश में। शिक्षा में समता पर जोर दीजिए। और ये जितनी दिवारें जन्म के आधार पर हमनें उलटी बुद्धि से बना रखी हैं। इन सभी सड़ी-गली मान्यताओं, रूढ़ीयों को तोड़ना बहुत जरुरी है।
स्वामीजी अभी हाल में अरुंधती राय ने कश्मीर पर अपना विवादास्पद विचार व्यक्त किया था। इस पर आपके क्या विचार हैं?
मै सबसे बड़ी बात यह कहना चाहता हूँ  कि अरुंधती राय की मै बेहद इज्जत करता हूँ । वो इसलिए कि वो बेलाग-बेखौफ होकर अपने विचार रखती है। अपने आप में यह एक बहुत बड़ी बात है। उसको मै गांधी का या किसी बुद्ध का रूप समझता हॅू। वो इस बात की परवाह नहीं करती कि बात आपको पसंद आ रही है या नहीं या आप उसपर पत्थर फेकेगें, गाली देगें या प्यार करेगें। मतलब कि उसके जो अंन्दर है वही बाहर है। बाकि किसी संदर्भ में किसी को लग सकता है कि नहीं, ऐसा नहीं वैसा होना चाहिए तो उसके साथ बैठे, बात करे। वो बात कह रही है, पत्थर नहीं मार रही है या बंदूक नहीं उठा रही है कि मेरी बात को मानो। वो, एक अकेली औरत अपने आप को "minority of one" कहती है। एक औरत कलम लेकर कोई बात कह रही है तो उसको भी सुनने से कोई समाज और राष्ट्र-राज्य घबरा जाए तो इससे ज्यादा नालायकी कुछ नहीं है। एक औरत की बात को सुनने से कोई घबरा जाए कि अरे क्या कह दिया? क्यों कह दिया? और उसको दबाने की कोशिश हो रही है। उसको गिरफ्तार करो, धारा लगाओ। ये तो सबसे गए-गुजरे समाज की पहचान है। उसके सुनो, समझो। उससे सहमत नहीं हो तो कहो कि हम आपसे सहमत नहीं  है। वो नहीं कह रही है कि आपको जरुर होना पड़ेगा। उसके पास सरकार जैसी ताकत भी नहीं है। वह जैसा अनुभव कर रही है बोल रही है। यह बहुत बड़ी बात है। हमारे अन्दर भी यही साहस होना चाहिए।
माओवादियों और सरकार के बीच मध्यस्ता के लिए आप सामने आये थे। उसका क्या हुआ?
काफी कुछ सफलता मिल रही थी। उनका(माओवादियों) जबाब भी आ गया था। बातचीत के लिए वे (माओवादी) आगे आ रहे थे, चिट्ठी लिखकर के उन्होंने कहा था। लेकिन अचानक उस व्यक्ति (चिरकुरी राजकुमार आजाद) को मार डाला गया, जिसने हमें पत्र लिखा था। उसके साथ हेमचन्द्र पांडे को भी मार डाला गया।
इसमें आप किसका हाथ मानते है?
 इसमें मै सरकार का हाथ मानता हूँ । इसलिए बार-बार मांग कर रहा हूँ  कि न्यायिक जांच कराओ। न्यायिक जांच का वादा करके प्रधानमंत्री स्वयं पिछे हट रहे हैं और जांच नहीं करा रहे हैं। मै इसे प्रधानमंत्री की बहुत बड़ी कमजोरी मानता हॅू। अब मुझे उनकी सदाशयता के ऊपर ही अविश्वास हो रहा है। वो अन्दर से ईमानदार नहीं हैं। वो नहीं चाहते कि उनके साथ बातचीत हो और बातचीत से ही कोई समाधान निकले।
 मतलब आप यह मानते है कि सरकार ने हिंसा का जो रास्ता नक्सलियों को दबाने के लिए अपनाया है। वह गलत है?
 बेहद! बेहद गलत है। ये हिंसा का रास्ता नहीं है। ये तो धोखेबाजी का, अविश्वास का रास्ता है। जिसको आप कह रहे हैं. कि आओ बातचीत करो और जब वह बातचीत के लिए बाहर आता है तो आप उसे पकड़ कर मार डालते हैं। ये तो घटिया से घटिया स्तर का चरित्र है। अगर कोई दूत संदेश ले कर के आप के पास आ रहा हो तो आप तो इतना तो करेगें कि आप संदेश लेंगे और जाने देंगे। तभी तो कोई आपसे बात करेगा। उसको (आजाद) बाहर निकलवाया किसी बहाने से और फिर उसको मार डाला। और मेरे जैसे सन्यासी को बीच में डाल दिया। मै हिंसा का घोर विरोधी हॅू। आपरेशन ग्रीनहंट का विरोधी। नक्सली हिंसा का विरोधी। मै तो पशु-पक्षी, प्राणी की भी हिंसा बर्दाश्त नहीं कर सकता। लेकिन मुझे बीच में चिट्ठी पकड़ा कर कहा गया कि आप हमारी बातचीत कराइये। मै बातचीत कराने के लिए आया और मेरे साथ ही धोखा हो गया।
 आज हमारी सरकार विभिन्न घोटालों और भ्रष्टाचार के दलदल में फंसी पड़ी है। इसमें नेता, मंत्री और अफसर सभी शामिल हैं। इस पर आपका क्या कहना है?

 अन्दर से बहुत ही घटिया और गंदे लोग सरकार में बैठे हुए हैं। इनका एक-एक का घोटाला, इनके एक-एक के रिश्तेदारों के सारे घोटाले इस बात को बयान करते हैं। इनके पैसे कहां जमा है? देश में-विदेश में। हमारे चारो तरफ जो सारा तंत्र है वो एकदम सढ़ंाध फैला रहा है। एक के बाद एक घोटाले हो रहे हैं। और हम ऐसा सोच रहे है कि अरे ये तो होता ही रहता है। क्या होना है? कुछ नहीं होना है। जो युवा पीढ़ी है उसके अन्दर एक आक्रोश उमड़नी चाहिए। इनमें से एक घटना का भी समुचित इलाज करने के लिए देशकृत संकल्प हो तो सारी व्यवस्था सुधर सकती है। रोज के हिसाब से घोटाले हो रहे हैं और हम फिर भी शांत बैठे हुए हैं। पत्रकारिता की ट्रेनिंग ले रहे हैं। क्या करोगे बताओ पत्रकारिता की ट्रेनिंग लेकर? ये सारे जिनको हम नेता मान रहे हैं, इनकी जगह जेल में होनी चाहिए। इनमें से कई को सजाए मौत होनी चाहिए। हमारे समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हम रोज पढ़ रहे हैं और रोज कुढ़ रहे हैं। लेकिन कोई ज्वाला नहीं फुट रही है। वो एक चुनौती है जिसे हरेक को महसुस करनी चाहिए।

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

61 वें  गणतंत्र दिवस की वास्तविकता


26 जनवरी 1950 को जब देश पहली बार गणतंत्र दिवस मना रहा था तब लोगों की आंखों में एक चमक थी कि अब वे गुलामी की निशानियों और विषमताओं को खत्म करते हुए सर्वागिण विकास की ओर बढ़ेगे। तब से लेकर अब तक गंगा में काफी पानी बह चुका है। और यमुना में तो पानी बहने लायक बचा भी नहीं। आज 26 जनवरी 2011 को जब हम 61वॉ गणतंत्र दिवस मना रहे है तो लोगों की आंखों में क्या है विकास की संतुष्टि या व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश? यह एक बड़ा सवाल है।

     यह सही है कि पहले गणतंत्र दिवस के समय 1.9 प्रतिशत हमारी विकास दर थी आज 9 प्रतिशत के लगभग। तब 18 प्रतिशत लोग साक्षर थे तो अब 68 प्रतिशत। तब 48 प्रतिशत लोग गरीब माने जाते थे तो अब 37.2 प्रतिशत। लेकिन यह भी सच है कि आज जब सरकार 61वॉ गणतंत्र दिवस मना रही है तब कोई किसान आत्महत्या कर रहा होगा या किसी आदिवासी को माओवादी बता कर गोली मारा जाता होगा या फिर कोई मॉ अपने बच्चे को पानी उबाल कर खिला रही होगी या फिर किसी दूसरे विनायक सेन को राष्ट्रद्रोह की सजा देने की तैयारी चल रही होगाी।

       अर्जुन सेनगुप्ता की रिर्पोट के मुताबिक देश की 78 प्रतिशत आबादी 20 रुपये रोज पर गुजारा करती है। दूसरे रिर्पोट से यह पता चलता है कि देश के 47 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। इससे यह पता चलता है कि देश ने कितना विकास किया है। 1991 में सरकार ने उदारीकरण को अपनाया ताकि देश का विकास हो सके। लेकिन इस उदारीकरण ने अग्रेजों की भांती देश को एक बार फिर दो भागों में बांट दिया है। एक तरफ शहरी इंडिया तो दूसरी तरफ ग्रामीण भारत।

     इस शहरी इंडिया के 602 लोग अरबपतियों में शुमार किये जाते हैं वहीं दूसरी तरफ ग्रामीण भारत में एक हफ्ते में 400 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं। भूख से, कुपोषण से, बिमारी से, ठंड से लोग मारे जा रहे हैं। सरकार को इस बात की चिंता नहीं है। दरअसल गरीब किसी भी कारण मरे सरकार के लिए चिंता की बात नहीं हैं। लेकिन यदि नीरा राडिया का टेप लिक हो जाता है या विदेशों में काला धन जमा करने वालों का नाम उजागर करने की बात की जाती है तो सरकार को चिंता हो जाती है।

दरअसल नीरा राडिया के टेप को सुनकर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकार किस तरह चलती है। उद्योगपतियों ने सरकार पर पूरी तरह अपनी पकड़ बना ली है उनके लिए कांग्रेस जैसी पार्टियां दुकान हो गई है। उद्योगपतियों, नेताओ, मंत्रियों, मीडिया और बड़े सरकारी अधिकारियों ने मिलकर जिस गठजोड़ को कायम किया है वह अपने एक खास तबके के हित के लिए काम कर रहा है। लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा से यह देश कोसो दूर चला गया है और जिस ’’समाजवादी’’ शब्द को 1976 में 44वॉ संविधान संशोधन करके प्रस्तावना में जोड़ा गया था। उसके तो अब परखच्चे भी उड़ गये हैं।

           देश में घोटालों की बारिश हो रही है। राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, जमीन घोटाला, आर्दश हाउसिंग घोटाला या फिर कोई और घोटाला हो। यह सब अब आम बात हो गई है। सरकार ने इन घोटालों पर कभी भी कड़ा रुख नहीं अपनाया है बल्कि सम्बधित मंत्री का इस्तीफा ही आज सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि बन गयी है। दूसरी तरफ सरकारी उपेक्षा का शिकार होकर आज कई क्षेत्रों में नक्सलवाद तेजी से बढ़ रहा है। कई क्षेत्रों में अलगाववाद की आवाज बुलंद की जा रही है। जो इस व्यवस्था की कमजोरी की ओर इशारा करता है। आज भी देश के अधिकांश कानून अंग्रेजो के जमाने के हैं। जिसके चलते आज भी हमें गुलामों की तरह शासित किया जाता है। सरकार के खिलाफ उठने वाली अब हर आवाज को कुचला जाने लगा है चाहे वह आवाज अहिसंक हो या हिंसक। जिसकी ताजा मिसाल है समाजसेवी विनायक सेन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा। जिसमें उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है।

एक बार फिर यह याद दिला दें कि आज देश 61वॉ गणतंत्र दिवस मना रहा है। आज राष्ट्रपति फिर बताएगी कि देश की विकास दर इस साल कितनी रहेगी। लेकिन वे क्या ये बताएंगी कि आजादी के बाद से अब तक जो 500 अरब डॉलर विदेशों में काले धन के रुप में जमा किया गया है उसे वापस कैसे लाया जाए? मंहगाई कैसे रोकी जाए? लोगों के असंतोष को कैसे शांत किया जाए? कैसे सता को उद्योगपतियों के हाथों में जाने से रोका जाए? ताकि इस देश की अधिकांश समस्याओं को सुलझाया जा सके। शायद नहीं!

                                                                                                                             रमेश भगत

सोमवार, 24 जनवरी 2011

पहली बार आईआईएमसी में लगी पुस्तक प्रदर्शनी

  पहली बार आईआईएमसी में लगी पुस्तक प्रदर्शनी ­­­­

कहते हैं किताब इंसान का सबसे अच्छा साथी होता हैं। देश दुनिया की तमाम बातें हम किताबों से जान सकते हैं, समझ सकते हैं और अपना एक विचार भी बना सकते हैं। किताबों के इसी महत्व को समझते हुए भारतीय जनसंचार संस्थान ने 20 जनवरी को पुस्तक
प्रदर्शनी का आयोजन करवाया। मंच पर आयोजित इस पुस्तक प्रदर्शनी का शुभारंभ संस्थान के निदेशक सुनित टंडन ने किया। यह प्रदर्शनी काफी सफल रही। इस पुस्तक प्रदर्शनी की खास बात यह रही कि यह पूरी तरह मीडिया पर आधारित पुस्तकों की प्रदर्शनी थी। इस प्रदर्शनी में दस से अधिक पुस्तक विक्रेताओं ने भाग लिया। ये पुस्तक विक्रेता अपने साथ कई प्रकाशनों की किताबें लाये थे। ये किताबें हिन्दी और अंग्रेजी दोनो भाषाओं में थी। लेकिन अंग्रेजी भाषाओं की किताबों की बहुलता रही। इस पुस्तक प्रदर्शनी में संस्थान के छात्र-छात्राओं, शिक्षक-शिक्षकाओ ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। विभिन्न विभागों के प्रमुखों ने अपने-अपने विचारों के हिसाब से कई पुस्तकों की सिफारिश संस्थान के पुस्तकालय के लिए की। हिन्दी पत्रकारिता के प्रमुख डॉ आनन्द प्रधान ने छात्रों के द्वारा सुझाए गए किताबों की भी सिफारिश पुस्तकालय के लिए की। संस्थान में पढ़ने वाले विदेशी छात्र-छात्राओं ने भी इस पुस्तक प्रदर्शनी में भाग लिया। उन्होंने कई किताबों की खरीददारी भी की। अपने मतलब की किताब ढूंढ रही अफगानिस्तान की एक छात्रा ने बताया कि “यह पुस्तक प्रदर्शनी काफी अच्छा है। यहां आकर काफी खुशी हो रही है। यहां मीडिया की ढेरों की किताबें है। कुछ ऐसी भी किताबें हैं जो मेरे देश अफगानिस्तान में नहीं मिलती। मैने तो कुछ किताबों को खरीदा भी“। प्रदर्शनी में कई प्रकाशनों की किताबें लेकर आए पुस्तक विक्रेता ”सेलेक्ट बुक सर्विस” के सुशील कपूर ने बताया कि यह प्रदर्शनी काफी अच्छी रही। पुस्तकालय के लिए ढेर सारी
किताबों की सिफारिश की गई। साथ ही कई छात्रों ने किताबों को खरीदा भी। 2009 में नेशनल बूक ट्रस्ट द्वारा करवाये गए एक सर्वे में यह सामने आया कि देश के कुल साक्षर युवाओं में से मात्र 25 प्रतिशत युवा ही किताबें पढ़ते हैं। इस सर्वे में मजेदार बात यह रही कि इसमें से 18‐8 प्रतिशत युवा अपने माता-पिता के कहने पर ही पढ़ने के लिए प्रेरित हुए हैं। यह एक चिंताजनक स्थिती है कि देश के युवाओं के बीच किताब पढ़ने का रूझान कम होता जा रहा है। इसका एक कारण तकनीक का विकास भी है। अब ज्यादातर लोग वेब में या कैडंल में ही किताबें पढ़ने लगे हैं। लेकिन यह भी सच है कि आज नए-नए प्रकाशन सामने आ रहे हैं। जो यह साबित करता है कि किताबों की दुनिया को कमजोर करके नहीं देखा जा सकता है।
             इस पुस्तक प्रदर्शनी में जब छात्र-छात्राओं से यह पूछा गया कि वे पुस्तक प्रदर्शनी को लेकर क्या सोचते हैं तो उनका जबाब था कि पहली बार संस्थान में ही आयोजित इस प्रदर्शनी का अनुभव काफी अच्छा रहा।भले ही आकड़ों में लोगों में किताब पढ़ने का रूझान कम दिखाई दे रहा हो लेकिन इस प्रदर्शनी में छात्रों और शिक्षकों के आवागमन को देखकर यही कहा जा सकता है कि किताबों की दुनिया अनोखी है और हर कोई इस अनोखी दुनिया में जीना चाहता है।
                                                                                                     रमेश कुमार

सोमवार, 17 जनवरी 2011

स्वामी अग्निवेश के साथ एक मुलाकात (an interview with swami agnivesh )

दिल्ली में पिछले साल नवम्बर में जब गाँधी कथा चल रही थी वहीं पर हमारी मुलाकात स्वामी अग्निवेश से हुई. स्वामी जी से मैंने कई विषयों पर बात की. यह विषय काफी गंभीर और महत्वपूर्ण  हैं. पेश है बातचीत के मुख्य 
अंश:
भाग: 1

 स्वामीजी गाँधी कथा आपको कैसी लगी?
 गाँधी कथा बहुत ही मार्मिक लगा. मुझे ऐसा लगा कि युवा पीढ़ी  को गांधीजी के प्रति आकर्षित होना चाहिए. गाँधी जी की तरह साधारण से साधारण व्यक्ति को अपने जीवन में प्रयोग करना चाहिए. इससे समाज में व्यापक बदलाव आएगा.
वर्तमान में गांधीजी की क्या प्रासंगिकता है?
गांधीजी की प्रासंगिकता तब तक रहेगी जब तक मनुष्य है. ये युग के साथ या 2010 के साथ नहीं जुड़ा है. मनुष्य के जीवन में जो आंतरिक उर्जा है. उसका वह कैसे विकास कर सकता है? ये द्वंद हमेशा रहेगा और रहा भी है. गाँधी हर इन्सान के लिए प्रासंगिक है जो अपनी तलाश कर रहा है.मै कौन हूँ ? किसलिए आया हूँ? मुझे सत्य के लिए जीना है. सत्य ही ईश्वर है ये जो तलाश है हर युग में रहेगी.
 कहा जाता है कि अहिंसा के लिए हिंसा से अधिक साहस और निडरता कि जरूरत होती है. इस साहस और निडरता को समाज में किस तरह से बढ़ाया जा सकता है?
 इसके लिए हम महापुरुषों के बारे में अधिक से अधिक देखे, सुने, पढ़े और जाने. गाँधी ही नहीं बल्कि हर देश या दुनिया के महापुरुषों के बारे में हमे जानना चाहिए. उनके जीवन में झाकने से हमें प्रेरणा मिलती है. मै समझाता हूँ कि हम सब के अन्दर अहिंसा की शक्ति है. जहाँ भी न्याय है, करुणा है, दया है, वहाँ अहिंसा की शक्ति है. अहिंसा हर इन्सान के दिल में है.जैसा की गाँधी कथा के दौरान कहा गया "ईश्वर सब जगह, सब के अन्दर है". और ईश्वर क्या है? वह सत्य है. इतना ही पर्याप्त  है. हर इन्सान के अन्दर यह क्षमता है कि वह असत्य से अन्याय से जूझ सके.
किसी भी बदलाव में युवाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. ऐसे में आप युवाओं को क्या सन्देश देना चाहेंगे? 
युवाओं को मै यह कहूँगा कि समाज को बदलने के लिए परिवर्तन का जो जज्बा होना चाहिए. उसके लिए जरूरी है कि पहले अपने आप को अन्दर से बदलना है. यदि आज के युवा ये बातें मंत्र ले ले कि समाज में जो सड़ांध है, विषमता है, शोषण है, एक दिन इसको बदलने के लिए मैं change agent बदलना चाहता हूँ तो मै खुद में बदलाव करू. Do the change what you want to see in the world. मुझे आज के युवाओं में बहुत संभावना दिखती है. आज के युवा पहले जैसा कुंठाग्रस्त जीवन नहीं जी रहें. कुंठाएं टूट रही हैं. युवा थोड़ा और जिम्मेदारी से सोच रहा है.
इस बदलाव में मीडिया की क्या भूमिका है?  

 मीडिया और बाकी राजनीति, अर्थनीति ये सब बहुत ही गौण चीज़े हैं. मीडिया को जो व्यक्ति बनाना चाहता है वही मीडिया बनता है. आपको जानकर यह आश्चर्य होगा कि ये जो टीवी, अख़बार को हम मीडिया मानते है, इनसे विचारों का जो सम्प्रेषण होता है, फैलाव होता है वो कम होता है. word of mouth से यानि word of mouth में आचरण की शक्ति जुड़ जाए तो कोई बात एक व्यक्ति कोई पांच व्यक्ति को बताये, अगले पांच और पांच को बताये तो 15 दिन तक पूरी दुनिया के इन्सान तक बात पहुँच जाएगी. मीडिया तो ये है. हम इसको नहीं समझ रहे हैं. हम ये देख रहे हैं कि अख़बार में कितना छप रहा है टीवी में कितना दिख रहा है, ये मीडिया की ताकत नहीं है. इससे कोई बदलाव नहीं आता. बदलाव की जो शक्ति है अपने आप में एक ईश्वर की गति से निकलती है. लेकिन वह काफी ठोस होनी चाहिए. दुःख यही है कि आज मीडिया माध्यमों से जितना भी परोसा जा रहा है वह बड़ा मिलावटी सा सत्य होता है, गहराई नहीं होती, वह छिछलापन सा होता है.
आज का जो युवा है वह गाँधी को कम सुनना चाहता है और मार्क्स को ज्यादा. बदलाव के लिए किनके विचार ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकते है?  

गाँधी हो, मार्क्स हो, लिंकन हो, लेनिन हो ये अलग- अलग नहीं है. ये सब बदलाव के प्रबल प्रतीक हैं. इनमे से किसी एक को भी पकड़कर ईमानदारी से चलोगे तो आप अपना भी कल्याण करेंगे और समाज का भी. मै इनको एक दुसरे का पूरक देखता हूँ गाँधी, मार्क्स, माओ, लेनिन जो भी लोग हैं. ईसा मसीह, मुहम्मद साहब, दयानद सरस्वती, विवेकानंद जो भी दिखते हैं, बुद्ध, नानक, कबीर ये सब के सब एक दुसरे के पूरक हैं. एक परिवार के सदस्य जैसे हैं. हालाँकि ये बाँट दिए गये हैं अलग-अलग धर्म या विचारधारा में. आप देखेंगे कि मार्क्स भी कह रहा है कि क्यों हो रहा है शोषण? इसे जानने के लिए उसके जड़ में जाओ. गाँधी भी कह रहे हैं सत्य में जाओ. यह एक ही दिशा है. एक दिशा में जाकर एक व्यक्ति एक पहलू को छू रहा है तो दुसरा दुसरे पहलु को छू रहा है, जैसे किसी ने न्यायदर्शन, किसी ने वेदांत, किसी ने मिमंत दर्शन. इससे ये अलग-अलग दर्शन दिखाई पद रहे हैं लेकिन हैं वो समग्र में एक ही.