गुरुवार, 1 मार्च 2012

माओवादियों ने पेश की नई चुनौती



रमेश भगत
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ओडिशा के कई जिलों में पंचायत चुनाव के नतीजों ने केंद्र सरकार के कान खड़े कर दिए हैं। खबर है कि अनेक पंचायतों में माओवादियों से जुड़े या उनके समर्थक सरपंच चुने गए हैं। दक्षिण ओडिशा के मलकानगिरि, कोरापुट, नुआपाड़ा, कंधमाल, बोलांगिर, रेयागाड़ा और कालाहांडी में हुए पंचायत चुनाव में सरपंच पद के लिए 447 उम्मीदवार खड़े हुए। जिसमें 33 उम्मीदवार निर्विरोध चुने गए। पंचायत समिति सदस्य के लिए 46 उम्मीदवार निर्विरोध चुने गए। वार्ड सदस्य के लिए 5461 उम्मीदवार खड़े हुए जिनमें से 2572 सदस्य निर्विरोध चुने गए।
इस चुनाव में एक तरफ तो नक्सली लोगों से पंचायत चुनाव का बहिष्कार करने को कह रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ वो अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार खड़े कर रहे हैं। इस चुनाव में जितने भी सरपंच निर्विरोध चुने गए हैं, बताया जाता है कि उनका संबंध नक्सलियों से है। नक्सलियों ने ऐलान किया था कि उनसे पूछे बिना कोई भी व्यक्ति उनके समर्थन से खड़े उम्मीदवारों के खिलाफ नामांकन नहीं करेगा। नक्सलियों की इस धमकी का व्यापक असर हुआ। एक तरफ नक्सलियों ने चुनाव बायकाट की अपील की, दूसरी तरफ अपने उम्मीदवारों को खड़ा करवाया। इससे नक्सल समर्थक उम्मीदवार निर्विरोध चुन लिए गए। ये सभी सरपंच दक्षिणी ओडिशा के मलकानगिरि और कोरापुट जिले के हैं। मलकानगिरि में नक्सलियों ने बकायदा प्रजा अदालत का आयोजन कर सरपंच का चुनाव कर लिया जिस पर गांववालों ने अपनी चुनावी मुहर लगा दी।
इस बात की खबर जब सुरक्षा एजेंसियों ने गृह मंत्रालय को दी तो गृह मंत्रालय के कान खड़े हो गए। उसने राज्य सरकार और सुरक्षा एजेंसियों को इस पर नजर बनाए रखने को कहा है। यह गृह मंत्रालय की चिंता का सबब इसलिए भी है कि ओडिशा पूर्वी भारत में नक्सलियों का बसे मजबूत गढ़ माना जाता है।
ओडिशा में नक्सलियों के खिलाफ जब से बीएसएफ को उतारा गया है तब से नक्सलियों को अपने कदम कई बार पीछे खींचने पड़े हैं। जिससे नक्सली दवाब महसूस कर रहे हैं। बीएसएफ से पार पाने के लिए ही नक्सलियों ने शायद इस नई रणनीति का सहारा लिया है। हालांकि नक्सिलयों के लिए ये कोई नई बात नहीं है। वो इस रणनीति का इस्तेमाल झारखंड में भी कर चुके हैं। जहां उनके समर्थक उम्मीदवार निर्विरोध चुने गए थे।
ओडिशा में नक्सल समर्थित जितने भी उम्मीदवार निर्विरोध चुने गए हैं उनसे नक्सलियों को कई फायदा हो सकता है। इसका सीधा फायदा ये होगा कि मनरेगा और पिछड़ा क्षेत्र अनुदान निधि से मिलने वाली राशि का इस्तेमाल वे अपने हित में कर सकेंगे। एक बड़ी बात यह भी है कि नक्सलियों की जब स्थानीय प्रशासन में पकड़ मजबूत हो जाएगी तो वे इसका इस्तेमाल ढाल की तरह करते हुए बीएसएफ या अन्य सुरक्षाबलों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देंगे। इससे उनके सिकुड़ते प्रभाव क्षेत्र को नई ऊर्जा मिल सकती है।
नक्सलियों के स्थानीय प्रशासन में प्रवेश करने से सरकार की जिम्मेदारी भी बढ़ गई है। सरकार को अब यह सुनिश्चित करना होगा कि जो धन राशि मनरेगा और पिछड़ा क्षेत्र अनुदान निधि से ग्राम पंचायतों को दी जाएगी, उसका इस्तेमाल सही तरीके से किया जाए। साथ ही स्थानीय लोगों को भी पर्याप्त सुरक्षा-व्यवस्था मुहैया कराया जाए।
आमतौर पर नक्सली लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास नहीं करते। वे एक अलग व्यवस्था बनाने के पक्षधर रहे हैं, जो वर्गविहीन, जातिविहीन, और जनवादी हो। इसी कारण नक्सली हमेशा भारत में चुनाव का बहिष्कार करते रहे हैं। लेकिन अब लगता है कि उन्होंने चुनाव से तौबा करना छोड़ दिया है और स्थानीय प्रशासन में प्रवेश करने लगे हैं।
नक्सलियों की नई रणनीति भारतीय लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करेगी या मुश्किल में डाल देगी, ये तो फिलहाल नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना जरूर है कि नक्सलियों की इस रणनीति से भारत सरकार की मुश्किलें कम होने वाली नहीं है। 
                                                                                               नया इंडिया में छपा समाचार विश्लेषण