मंगलवार, 25 जनवरी 2011

61 वें  गणतंत्र दिवस की वास्तविकता


26 जनवरी 1950 को जब देश पहली बार गणतंत्र दिवस मना रहा था तब लोगों की आंखों में एक चमक थी कि अब वे गुलामी की निशानियों और विषमताओं को खत्म करते हुए सर्वागिण विकास की ओर बढ़ेगे। तब से लेकर अब तक गंगा में काफी पानी बह चुका है। और यमुना में तो पानी बहने लायक बचा भी नहीं। आज 26 जनवरी 2011 को जब हम 61वॉ गणतंत्र दिवस मना रहे है तो लोगों की आंखों में क्या है विकास की संतुष्टि या व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश? यह एक बड़ा सवाल है।

     यह सही है कि पहले गणतंत्र दिवस के समय 1.9 प्रतिशत हमारी विकास दर थी आज 9 प्रतिशत के लगभग। तब 18 प्रतिशत लोग साक्षर थे तो अब 68 प्रतिशत। तब 48 प्रतिशत लोग गरीब माने जाते थे तो अब 37.2 प्रतिशत। लेकिन यह भी सच है कि आज जब सरकार 61वॉ गणतंत्र दिवस मना रही है तब कोई किसान आत्महत्या कर रहा होगा या किसी आदिवासी को माओवादी बता कर गोली मारा जाता होगा या फिर कोई मॉ अपने बच्चे को पानी उबाल कर खिला रही होगी या फिर किसी दूसरे विनायक सेन को राष्ट्रद्रोह की सजा देने की तैयारी चल रही होगाी।

       अर्जुन सेनगुप्ता की रिर्पोट के मुताबिक देश की 78 प्रतिशत आबादी 20 रुपये रोज पर गुजारा करती है। दूसरे रिर्पोट से यह पता चलता है कि देश के 47 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। इससे यह पता चलता है कि देश ने कितना विकास किया है। 1991 में सरकार ने उदारीकरण को अपनाया ताकि देश का विकास हो सके। लेकिन इस उदारीकरण ने अग्रेजों की भांती देश को एक बार फिर दो भागों में बांट दिया है। एक तरफ शहरी इंडिया तो दूसरी तरफ ग्रामीण भारत।

     इस शहरी इंडिया के 602 लोग अरबपतियों में शुमार किये जाते हैं वहीं दूसरी तरफ ग्रामीण भारत में एक हफ्ते में 400 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं। भूख से, कुपोषण से, बिमारी से, ठंड से लोग मारे जा रहे हैं। सरकार को इस बात की चिंता नहीं है। दरअसल गरीब किसी भी कारण मरे सरकार के लिए चिंता की बात नहीं हैं। लेकिन यदि नीरा राडिया का टेप लिक हो जाता है या विदेशों में काला धन जमा करने वालों का नाम उजागर करने की बात की जाती है तो सरकार को चिंता हो जाती है।

दरअसल नीरा राडिया के टेप को सुनकर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकार किस तरह चलती है। उद्योगपतियों ने सरकार पर पूरी तरह अपनी पकड़ बना ली है उनके लिए कांग्रेस जैसी पार्टियां दुकान हो गई है। उद्योगपतियों, नेताओ, मंत्रियों, मीडिया और बड़े सरकारी अधिकारियों ने मिलकर जिस गठजोड़ को कायम किया है वह अपने एक खास तबके के हित के लिए काम कर रहा है। लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा से यह देश कोसो दूर चला गया है और जिस ’’समाजवादी’’ शब्द को 1976 में 44वॉ संविधान संशोधन करके प्रस्तावना में जोड़ा गया था। उसके तो अब परखच्चे भी उड़ गये हैं।

           देश में घोटालों की बारिश हो रही है। राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, जमीन घोटाला, आर्दश हाउसिंग घोटाला या फिर कोई और घोटाला हो। यह सब अब आम बात हो गई है। सरकार ने इन घोटालों पर कभी भी कड़ा रुख नहीं अपनाया है बल्कि सम्बधित मंत्री का इस्तीफा ही आज सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि बन गयी है। दूसरी तरफ सरकारी उपेक्षा का शिकार होकर आज कई क्षेत्रों में नक्सलवाद तेजी से बढ़ रहा है। कई क्षेत्रों में अलगाववाद की आवाज बुलंद की जा रही है। जो इस व्यवस्था की कमजोरी की ओर इशारा करता है। आज भी देश के अधिकांश कानून अंग्रेजो के जमाने के हैं। जिसके चलते आज भी हमें गुलामों की तरह शासित किया जाता है। सरकार के खिलाफ उठने वाली अब हर आवाज को कुचला जाने लगा है चाहे वह आवाज अहिसंक हो या हिंसक। जिसकी ताजा मिसाल है समाजसेवी विनायक सेन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा। जिसमें उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है।

एक बार फिर यह याद दिला दें कि आज देश 61वॉ गणतंत्र दिवस मना रहा है। आज राष्ट्रपति फिर बताएगी कि देश की विकास दर इस साल कितनी रहेगी। लेकिन वे क्या ये बताएंगी कि आजादी के बाद से अब तक जो 500 अरब डॉलर विदेशों में काले धन के रुप में जमा किया गया है उसे वापस कैसे लाया जाए? मंहगाई कैसे रोकी जाए? लोगों के असंतोष को कैसे शांत किया जाए? कैसे सता को उद्योगपतियों के हाथों में जाने से रोका जाए? ताकि इस देश की अधिकांश समस्याओं को सुलझाया जा सके। शायद नहीं!

                                                                                                                             रमेश भगत

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